Wednesday, October 7, 2015

क्या होली, क्या दिवाली !

बचपन में अक्सर सोचा करता था,
क्यूँ बड़े लोगों को होली का शौक़ नहीं होता ?
क्यूँ दिवाली पर इनका पठाके चलाने का दिल नहीं होता ?
जी भर कर कभी ये क्यूँ न खिलखिलाते ?

आज उन सवालों का  जवाब नज़र आता है |
 इस विडम्बना पर मेरा मन मुस्कुराता है |
होली दिवाली तो अब रोज़ माना करती है |
रंगते-रंगाते हम रोज़ बाज़ारों में नज़र आते हैं |
पठाके हर दिन अब घरों में बजा करते हैं |
मिल कर न हस कर, हम एक-दूजे पर हस्ते हैं |
ख़ुशी की जगह दुसरे का दर्द ढूंढते हैं |

यह सब सोच कर बस एक ख्याल आता है ,
बचपन कि मासूम यादों को ताज़ा कर जाता है |
काश हम इंसान को इंसान समझ पते,
और अपने बचपन से कुछ सीख पते |

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